बालक के विकास को समय-समय पर विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न भागों में बाँटा है। इनमें समानता सिर्फ गर्भधान से लेकर परिपक्वावस्था (प्रौढ़ावस्था) की अवधि की है और अन्य रूपों में सभी भिन्नता रखते हैं।
कोल, जान्स, सैले, काल्सनिक आदि विद्वानों के वर्गीकरण के आधार पर हम विकास की अवस्थाओं को निम्नलिखित भागों में विभक्त कर सकते हैं-
‘फ्रायड’ (Froied) ने लिखा है- “मानव शिशु जो कुछ बनता है, जीवन के प्रारम्भिक चार-पाँच वर्षों में ही बन जाता है। “The little human being is freequenlty a finished product in his four or fifth year.”
इस प्रकार से स्पष्ट हो जाता है कि बालक की शैशवावस्था या शैशव काल उसके जीवन का क्रम निश्चित करने वाला समय है।
बालक के विकास की सभी अवस्थाएँ अपने में अलग-अलग विशेषताएँ लिये हुए हैं। बाल्यावस्था, जिसका समय विद्वानों ने 6 वर्ष से 12 वर्ष तक माना है, बालक के जीवन का अनोखा काल माना जाता है।
मानव विकास की सबसे विचित्र एवं जटिल अवस्था किशोरावस्था है। इसका काल 12 वर्ष से 18 वर्ष तक रहता है। इसमें होने वाले परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व के गठन में महत्त्वपूर्ण योग प्रदान करते हैं। अत: शिक्षा के क्षेत्र में इस अवस्था का विशेष महत्त्व है।
वयस्कता या प्रौढ़ावस्था, मानव जीवन काल जिसमें पूर्ण शारीरिक और बौद्धिक परिपक्वता प्राप्त हुई है। वयस्कता आमतौर पर 18 से 21 साल की उम्र में शुरू होती है। लगभग 40 वर्ष से शुरू होने वाली मध्य आयु, लगभग 60 वर्ष की आयु के बाद वृद्धावस्था होती है।
वृद्धावस्था का तात्पर्य मानव की जीवन प्रत्याशा के निकट या उससे अधिक आयु से है, और इस प्रकार यह मानव जीवन चक्र का अंत है। लगभग 50 से 60 बर्ष से ऊपर की उम्र को वृद्धावस्था कहा जाता है। नियम और व्यंजना में वृद्ध लोग, बुजुर्ग, वरिष्ठ, वरिष्ठ नागरिक, वृद्ध वयस्क और बुजुर्ग शामिल हैं।
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